उत्तराखंड में खेती-बाड़ी से जुड़े तमाम दस्तावेज और अध्ययन बताते हैं कि देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर, इन तीन जिलों के विकास की कहानी बाकी पहाड़ी जिलों की कहानी से बिल्कुल अलग है। औद्योगिक इकाइयों की स्थापना की वजह से इन तीन जिलों को कई तरह के फायदे मिले। साथ ही सिंचाई के निश्चित स्रोत होने के कारण ये जिले कृषि उत्पादन में भी अग्रणी हो गए।
एक तथ्य यह भी है पहाड़ी जिलों से पलायन करने वाले बहुत से लोग इन तीन मैदानी जिलों में आकर बस गए हैं। वर्ष 2022-23 की नाबार्ड फोकस रिपोर्ट के मुताबिक पलायन की वजह से पहाड़ी कृषि को भारी नुकसान हो रहा है। अनेक कृषि भूखंड ऐसे हैं जहां से शून्य पैदावार हो रवास्तव में उत्तराखंड में दो अलग तरह की कृषि शैलियां देखने को मिलती हैं। देहरादून, हरिद्वार और यूएसनगर की कृषि शैली पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब से मिलती जुलती है, जबकि बाकी पहाड़ी जिले हिमाचल की कृषि शैली से मेल खाते हैं। इसलिए जरूरी है कि नाबार्ड सरीखी संस्थाओं को उत्तराखंड के लिए दो विकास रिपोर्ट जारी करनी चाहिए।
ऋण सुविधाओं के दोहन में पहाड़ी और मैदानी जिलों में क्या अंतर
एक पहाड़ी जिलों के लिए, दूसरी मैदानी जिलों के लिए। इससे भविष्य में केंद्रीय कृषि मंत्रालय उत्तराखंड के लिए जब कोई नीति बनाएगा तो उसे पहाड़ी जिलों और मैदानी जिलों के लिए अलग अलग निर्णय लेने में सुविधा होगी। याद रहे, नाबार्ड की रिपोर्ट जब यह कहती है कि उत्तराखंड में छह लाख 13 हजार 245 किसान क्रेडिट कार्ड हैं तो उससे पता नहीं चलता कि ऋण सुविधाओं के दोहन में पहाड़ी और मैदानी जिलों में क्या अंतर है।
हो सकता है कि रुद्रपुर में शत प्रतिशत समृद्ध किसानों को ऋण सुविधा का फायदा मिल रहा हो, जबकि पिथौरागढ़ में तस्वीर बिल्कुल अलग हो। कृषि को सहारा देने के लिए जरूरी साधन जैसे कि तकनीकी, औजार, सस्ता कर्ज और मार्केटिंग आदि की स्कीमें मैदानी जिलों में तो अच्छे से चल जाती हैं लेकिन पहाड़ी जिलों में उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
सेब व आलू की फसलों पर जोर देने के शानदार रहे थे नतीजे